धराली के हादसे से सबक लेने की जरूरत
पीड़ित हिमालय अब गुस्से में है
राधा रमण, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं
दिल्ली। शांत और सौन्दर्य से भरपूर हिमालय की पीड़ा का कोई पुरसाहाल नहीं है। भला कौन शौक से अपने बच्चों को मौत के मुंह में धकेलना चाहता है ? लेकिन हिमालय आजकल यह कर रहा है। हिमालय तो सदा से मानव और वन्यजीवों का पालक रहा है। लेकिन इसके पीछे भी तो विकास की हमारी अंधी दौड़ ही तो रही है। सरकारें चाहे भाजपा की हों अथवा कांग्रेस की, पहाड़ों के जंगलों को ठूंठ करने, नये-नये निर्माण करने, सड़कें बनाने और बिजली बनाने के लिए पहाड़ों का सीना बार-बार छलनी करती रही हैं। यह बातें
राधा रमण, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार का कहना है। उन्होंने बताया कि
पिछले कुछ वर्षों से हिमालय हमें बार-बार चेतावनी देता रहा है लेकिन हम उसकी अवहेलना करते रहे हैं। केदार घाटी में 2013 का जल प्रलय हो अथवा पहाड़ी क्षेत्रों में बार-बार आ रहे भूकंप के झटके, यह प्रकृति की चेतावनी नहीं तो और क्या है ? भू वैज्ञानिकों ने बार-बार अपनी रिपोर्ट में सरकारों को आगाह किया है लेकिन विकास के रथ पर सवार सरकारों ने हमेशा उसे अनदेखा ही किया है। अब हिमालय गुस्से में है। नतीजतन प्राकृति गतिविधियां बढ़ गई हैं और मानव के अलावा वन्यजीवों की जान का खतरा बढ़ गया है।
इस साल मानसून का मौसम उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश तक हुई बर्बादी की गवाही देता है। अकेले हिमाचल में इस साल बादल फटने की 35 से अधिक घटनाएं घटित हुई हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इससे 219 लोगों की मौत हुई है, जबकि भूस्खलन की 53 घटनाएं हुई हैं। राज्य में मलबा गिरने से 360 से ज्यादा सड़कें जगह-जगह से टूट गयी हैं और राज्य सरकार के मुताबिक 1988 करोड़ की संपत्तियों का नुकसान हुआ है। यही हाल जम्मू कश्मीर का भी है। पिछले दिनों जम्मू कश्मीर के किश्तवाड़ में बादल फटने से 60 से अधिक लोगों की मौत हो गयी और सैकड़ों लोग लापता बताये जाते हैं। इसी तरह कठुआ में बादल फटने की तीन घटनाओं में 7 से अधिक लोगों की मौत हो गई। यह सरकारी आंकड़ा है जो हकीकत से काफी कम बताया जाता है।
हाल ही में उत्तराखंड की हर्षिल घाटी में आई तबाही दिल दहलाने वाली है। उत्तराखंड का धराली बाजार बादल फटने से एक बार फिर तबाह हो गया। इससे पहले तीन बार 1864, 2013 और 2014 में भी यहां बादल फटे थे और तबाही आई थी। हालांकि समय के साथ धराली बार-बार उठ खड़ा हुआ है। हो सकता है फिर से उठ खड़ा हो जाए। हालांकि उत्तराखंड सरकार ने धराली गांव को कहीं ऊंची जगह पर बसाने की बात कही है। गंगोत्री धाम से करीब 18 किलोमीटर पहले बसा उत्तरकाशी जिले का धराली पहले गांव था, फिर कस्बा बना और अब बाजार बनकर गुलजार हो रहा था। वहां 25 से ज्यादा होटल और होम स्टे बन गए थे। पुराने घर तो थे ही, कई सारे रेस्टोरेंट और दुकानें खुल गई थीं। गंगोत्री धाम जानेवाले पर्यटक यहां ठहरते और रात्रि विश्राम किया करते थे। गंगोत्री धाम जानेवालों के लिए धराली आखिरी पड़ाव होता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल गंगोत्री धाम में 6 लाख श्रद्धालुओं ने दर्शन किये थे। इस साल का आंकड़ा अभी सामने नहीं आया है।
धराली की आबादी करीब एक हजार थी। 5 अगस्त की दोपहर तक धराली के बाजार में चहल-पहल थी। बारिश के बावजूद मौसम सुहावना था। इस बीच, दोपहर करीब 1.15 बजे धराली के ऊपरी इलाके में बादल फटने से पहाड़ का मलबा महज 34 सेकेंड में धराली के बीचोंबीच बहनेवाली खीर नदी के रास्ते सब कुछ समेट ले गया। लगभग पूरा बाजार, सौ से ज्यादा घर, 30 से अधिक होटल, स्कूल, मंदिर और होम स्टे जमींदोज हो गए। धराली में जो इक्का-दुक्का घर बचे भी हैं, उसमें करीब 8 फीट मलबा भरा हुआ है। जानमाल के नुकसान का पूरा ब्यौरा रिपोर्ट लिखे जाने तक नहीं मिल सका है। धराली और आसपास के 80 एकड़ से ज्यादा इलाके में 30 फीट से ज्यादा ऊंचा मलबा फैला हुआ है। मलबों में जिंदगियां दबी हैं और बचाव दल बेबस है। घटना के एक सप्ताह बाद भी धराली तक पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं बचा है। पानी की तेज धार से सड़कें टूटी पड़ी हैं। उत्तरकाशी के कलक्टर और एसपी को धराली पहुंचने में दो दिन लग गए। आखिरकार उन्हें पहाड़ों के रास्ते पैदल पहुंचना पड़ा। हादसे के सात दिन बाद भी सड़कें दुरुस्त नहीं हो पायी हैं। सड़कें ठीक कर रहे लोग बताते हैं कि मौसम ठीक रहा तो अभी चार दिन और लगेंगे। बचाव दल ने 1300 से ज्यादा लोगों के रेस्क्यू करने का दावा किया है। उधर, प्रशासन ने अब तक महज 6 लोगों के मरने की पुष्टि की है, जिनमें दो का शव बरामद किया गया है। धराली में नेपाल के 25, बिहार के 13 के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई मजदूर काम करते थे उनका अभी तक पता नहीं चल पाया है। एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, आईटीबीपी और सेना के जवान राहत और बचाव कार्य में हादसे के बाद से ही जुटे हुए हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक धराली पहुंचने का एक मात्र जरिया हेलीकॉप्टर हैं और उन्हीं से बचाव कार्य चल रहे हैं। वायुसेना, सेना और सरकार ने बचाव कार्य के लिए 17 हेलीकॉप्टरों को तैनात कर रखा है। धराली स्थित प्राचीन कल्प केदार मंदिर भी मलबे में दफन हो गया है। बताया जाता है कि कल्प केदार मंदिर 1500 साल से ज्यादा पुराना है।
उत्तरकाशी के लिए मंगलवार (5 अगस्त) का दिन कुछ ज्यादा ही मनहूस रहा। वहां महज ढाई घंटे के भीतर धराली के अलावा हर्षिल और सुक्खी टॉप के पास भी बादल फटने की घटनाएं हुईं। हर्षिल में भारतीय सेना का बेस कैंप है। एनडीआरएफ के डीआईजी के मुताबिक हादसे के बाद सेना के 9 जवान भी लापता हैं। उन्हें ढूंढने का अभियान जारी है। प्रशासन ने अभी तक सिर्फ धराली और हर्षिल हादसे का आधा-अधूरा ब्यौरा दिया है। सुक्खी टॉप में बर्बादी की जानकारी अब तक तक नहीं मिल पायी है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से बात की है। उन्होंने हर संभव मदद का भरोसा दिया है। मुख्यमंत्री ने प्रभावित क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया है। वह राज्य के आपदा प्रबंधन के लोगों और सरकारी अधिकारियों के साथ लगातार संपर्क में हैं। लेकिन प्रकृति जब कोप में होती है तो आदमी बेबस हो जाता है।
वरिष्ठ भू वैज्ञानिक प्रो. एसपी सती कहते हैं कि ‘धराली ट्रांस हिमालय में मौजूद मेन सेंट्रल थर्स्ट में है। यह एक दरार होती है जो मुख्य हिमालय को ट्रांस हिमालय से जोड़ती है। यह इलाका भूकंप का अति संवेदनशील जोन भी है। जिस पहाड़ से खीर गंगा नदी आती है, वह 6 हजार मीटर ऊंचा है। जब भी वहां से सैलाब आता है, धराली को तहस-नहस कर देता है।‘
बताया जाता है कि 2014 में आयी आपदा में पहाड़ का एक बड़ा टुकड़ा खीर नदी के ऊपर अटक गया था। इस बार भारी बारिश और भूस्खलन से वह खीर नदी में जा गिरा, जिससे धराली मटियामेट हो गया।
उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ पीयूष रौतेला की मानें तो 2014 की आपदा के बाद भू वैज्ञानिकों ने सरकार से धराली को कहीं और बसाने को कहा था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि धराली टाइम बम पर बैठा है। यही नहीं, उत्तराखंड में सैकड़ों गांव नदियों के कछार में बसे हुए हैं। हर साल बरसात में उन गांवों का संपर्क कट जाता है। भू वैज्ञानिकों की रिपोर्ट सरकारी फाइलों में धूल फांकती रहती है और सरकार सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनी रहती है। सरकार का पूरा जोर पर्यटकों से कमाई पर केंद्रित रहता है।
हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय में भूविज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. एमपीएसबिष्ट कहते हैं कि ‘समूचा हिमालय बदलाव के दौर से गुजर रहा है। यहां भूस्खलन से लेकर बाढ़, हिमस्खलन, भूकंप और बादल फटने की घटनाएं होती रहेंगी। हमें न सिर्फ इनके लिए तैयार रहना होगा, अपितु प्रकृति के अनुरूप बचाव के साधन भी अपनाने होंगे। यदि हम नदियों के जलग्राही क्षेत्रों में घर बनाएंगे तो धराली जैसी आपदाएं आती रहेंगी। यदि संवेदनशील घाटियों में निवास करेंगे तो बादल फटने और भूस्खलन की जद में सांस लेंगे। सुनियोजित निर्माण की जगह मनमर्जी का निर्माण करेंगे तो भूकंप का खतरा सिर पर मंडराता रहेगा।‘
इसके अलावा समूचे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में सड़क निर्माण, सुरंग और हाइड्रो प्रोजेक्ट के नाम पर काम सालों साल चलता रहता है। जंगल काटे जा रहे हैं। डायनामाईट से पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। इससे पहाड़ों की मजबूती कम होती जा रही है। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन का अभाव होते जा रहा है। पहाड़ों के बीच कई स्थानों पर झील बने हुए हैं। अगर, सरकार भू वैज्ञानिकों की सलाह को नजरअंदाज करती रहेगी तो आनेवाले दिनों में मानव और वन्यजीवों के लिए खतरा बड़ा होता जाएगा। बेशक, विकास जरूरी है लेकिन जान-माल की हानि की कीमत पर होने वाले विकास को कत्तई उचित नहीं कहा जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह कि धराली की आपदा से सीख लेने की सख्त जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)
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